Wednesday, October 17, 2012


वैरागी चित्तौड़-1

दोस्तों  रणबांकुरो की धरती राजस्थान के गौरवशाली इतिहास का एक पन्ना स्वर्गीय तन सिंह जी की कलम से ! अनेको अनेको नमन उस वीर प्रसूतिनी धरा को ...... 




स्व.श्री तनसिंहजी की कलम से
यह चित्तौड़ है,जिसके नाम से एक त्वरा उठती है,एक हुक बरबस ह्रदय को मसोस डालती है;किंतु जिसने अपनी आंखों से देखा है उसकी द्रष्टि भावनाए बनकर लेखनी में उतर जाया करती है और फ़िर कागजों के कलेजे कांपने लग जाया करते है| इतिहास के इतने कागज रंगने पर भी क्या दुर्ग की दर्दनाक कहानी का किसी ने और-छोर भी पाया है ? क्या फुसलाने से भी कोई व्यथा मिट सकती है ? क्या सहलाने से भी दर्द समाप्त हो सकता ? चित्तौड़ स्वंम एक कहानी-एक दर्दभरी दास्ताँ है ;एक उपेक्षित किंतु महान कौम का महाकाव्य है,जो कागजों पर नही,इतिहास के भुलाये हुए महाकवियों द्वारा पत्थरों पर लिखा गया है| पत्थर की लकीरों की भांति ही है-वे कहानियाँ जो न समय की आंधी से अब तक मिट सकी है और न ही विस्मृति की वर्षा से धुल सकी है |
स्टेशन पर हमें छोड़ कर रेलगाडी विदा होते हुए कहती है-" जाओ पथिक ! जा कर देखो ! वहां वे बहादुर लोग सो रहे है,जिन्होंने तुम्हारे देश,धर्म के लिए,तुम्हारी संस्कृति और परम्परा के लिए,बड़े से बड़े त्याग को भी छोटा कर दिखाया है! उन देश भक्तों को मेरा प्रणाम कहना "|
इतिहास की क्रीडास्थली मेवाड़-भूमि के उबड-खाबड़ मगरों और ऊँची नीची पहाडियों के बीच आकाश को कुदेरता,गुमसुम हुवा,चित्तौड़ का यह गौरवशाली यह दुर्ग ऐसे खड़ा है,जैसे किसी अजेय शक्ति से पराजित होकर अपने गण और अनुचरों के बीच भगवान शिव किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े विजय की कामना में किसी विस्मृत सिद्धि की पुनः प्राप्ति के लिए अनुष्ठान कर रहे हों |इस दुर्ग के भी कभी सुनहले दिन थे,चांदनी रातें थी,वैभव-सम्पति की अठखेलियों की बहारें थी,मंगल गीत और उत्सवों की ऋतुएं थी | हाँ,मंगल-श्री ही थी,पर आज विदा ले चुकी है | एक आग थी जो राख होने जा रही है |एक वीरता थी,जो समर भूमि में रक्त से लथपथ हो अब जीवन की अन्तिम घडियां गिन रही है |
श्री विहीन अवस्था में भी वह बाहें पसार कर आपका स्वागत कर रहा है| दुर्दिन की निराशा में भी अतिथि-सत्कार की परम्परा को नही भुला है,काल और परिस्थितियों की विजय इसकी मुस्कराहट पर विजय प्राप्त नही कर सकी है |वह मुस्कराकर आपसे आग्रह कर रहा है -" आओ पथिक ! तुम्हारा स्वागत है | पत्थरों की कारीगरी और कला के पारखी हो तो भीतर जाकर परीक्षा करो-ये पत्थर बड़े कि उनके कारीगर ? जाओ और पहचानों इस कला और कलाकारों में कौन बड़ा है ?और यदि तुम मनुष्यों कि भावनाओं के जौहरी हो, तो आओ,मेरे ह्रदय की तड़पन को देखो,सम्पति और विप्पती का समन्वय देखो,जीवन और मृत्यु के संघर्ष में कचोटी हुयी भूमि को देखो,इतिहास पढो और यहाँ आकर देखो उसके क्षत-विक्षत भग्नावशेष देखो |
अभी तो उनके चरण चिन्ह भी नही मिटे है |भीतर आकर पहचानो,कही तुम्हारा भी कोई निशान है ? अभी-अभी वह आग भुझ कर राख हुयी है-ढुंढौ,तुम्हारी ही किसी माँ-बहिन की जली हुयी चूडियाँ इधर-उधर बिखरी हुयी न पड़ी हो | यह दीवारें कल तक बोलती थी,कहीं उस पर तुम्हारा ही कोई शब्द अटका हुवा नही पड़ा है ?"
द्वार के पास ही दो एक स्मारक खड़े है | दर्शक उनकी भाषा समझने की चेष्ठा में ठिठक कर खड़ा हो जाता है | पर रावत बाघसिंह की भाषा कौन सकता है ? कौन समझ पायेगा उस वीर पुरूष के अरमानों को,जो जिस दुर्ग से एक दिन निर्वासित हो गया था; आक्रान्ता से लड़ता हुवा,उसी दुर्ग के प्रथम द्वार पर अपना स्मारक बना सकने में सफल हुआ हो ! समझ भी कैसे सकता है,जब देश पर छाई हुयी विपत्ति के समय समाज के समक्ष व्यक्ति मानापमान को तिलांजली देना सिखाने वाले उस समाज-चरित्र की भाषा वर्षों से लुप्त हो गई है ! दर्शक की अबोध बेबसी पर दुर्ग की मूक वेदना कहती है,तनिक और आगे बढ कर देखो ! यहाँ का एक-एक पत्थर अवशेष है ? अभी से कैसी हिचक ?
यह जयमल और कल्ला जी की छतरियां है | कर्तव्य जैसे दुर्भाग्य से पछाड़ खाकर राह पर पड़ा कराह रहा हो | उस कराहते हुए दर्द पर शिल्पी ने छत्री को सोंदर्य देना चाहा है,किंतु वह कौनसी सुन्दरता है,जो जयमल की छत्री पर चढ़कर लज्जित नही होगी ? वह सोंदर्य तो क्षमा मांग रहा है-मुझे तो विवश बनाकर शिल्पी ने लगा दिया है | इस छत्री का सोंदर्य तो केवल जयमल और कल्ला जी ही है,और अब उनकी यादगार ही इस छत्री का सोंदर्य है |

यादगार !
देश-प्रेम के मतवाले जयमल मेडतिया की यादगार,जिसने घायल होकर भी अपने कर्तव्य को नही छोड़ा | उस युद्ध की यादगार ! जब वे घोड़े पर नही चढ़ सके तो कल्ला जी के कंधे पर चढ़कर युद्ध करने लगे थे | उस केसरिया बाने की यादगार,जिस पर बहता लाल रक्त जैसे शोर्य के घोड़े पर क्रोध सवार हो रहा हो |
हाँ !
यह वही स्थान है,जहाँ वीर जयमल मेडतिया ने महाकाल की पूजा में अपने जीवन-प्रसून को सदा के लिए चढा दिया |
आज भी दो एक फूल समाधी पर पड़े रो रहे है-बावले साधको ! यह देवता हमारे जैसे फूलों से प्रसन्न नही होता | यह तो स्वतंत्रता और मातृभूमि के लिए मिटा था | यदि तुम्हारे पास भी ऐसी ही कोई भावना हो तो वह चढावो |
छोडो !
यह सम्पति भी लुट चुकी |
आगे चलो !

वैरागी चित्तौड़ -2


वैरागी चित्तौड़ ....का शेष भाग 

यह दुर्ग का अन्तिम द्वार है,जहाँ प्राणों की बाजी लग जाया करती थी; जवानी म्रत्यु को धराशायी कर दिया करती थी;कर्तव्य यहाँ यौवन की कलाईयां पकड कर मरोड़ दिया करता था;उमंगे यहाँ तलवार की धार पर नाचने लग जाया करती थी;विलास वैभव और सुख यहाँ उदासीन होकर धक्के खाया करते थे |
यह वही द्वार है !
वही द्वार है,जहाँ मस्ती मस्त हो जाया करती थी | अब सिर्फ़ यादगार पड़ी हुयी सिसक रही है | समय ने उसका सुहाग छीन लिया है |
वही द्वार है,जहाँ जिन्दगी उन्मत हो उठ जाया करती थी |आज तो सिर्फ़ मौत तडफ रही है | अलबेलों की छाती का सारा रक्त पी लिया है |
वही द्वार है,जहाँ बनते और बिगड़ते हुए सैकडों इतिहासों ने राज्य लक्ष्मियों के भाग्य पोंछ डाले;पर इस समय कुछ उपेक्षित-सी भूलें अपना अन्तिम दम तोड़ रही है |
द्वार में प्रविष्ट होते ही- यह पत्ता का स्मारक है | कल की निर्दयी शमां पर चढा हुवा मासूम परवाना,कर्तव्य की आँख का टपका हुवा दर्दीला आंसू,सृष्टि की सुखभरी नींद का प्रभात-कालीन अधुरा स्वप्न,मानवता की टहनी पर खिलने से पहले मुरझाया हुवा एक निर्दोष पुष्प,विधाता की निष्पाप भूल का अभागा परिणाम,स्मारक की फटी-पुरानी लज्जा में सिकुड़-सिमट कर सो रहा है-अनंत निंद्रा में| मत जगाओ ! कुचले हुए भाग्य के अधूरे अरमानों की फ़िर कहीं होली न खेल जाए | बहता हुवा आंसू कहीं आग का शोला न बन जाए | किसी महान संकल्प का कोई अभागा परिणाम भाग्य से बदला लेने के लिए दहक न उठे |
शत्रु का जिसने खुली छाती मुकाबला किया,उसी की वेदना सो रही है | जरा चुप ! वहकहीं अंगडाई लेकर उठ खड़ी न हो जाय | संसार के इस उपेक्षित एकांत में स्मृति आँख मिचोली खेल रही है | सदियों पहले यहाँ एक छोटा-सा बालक शत्रु से लड़ता हुवा अनंत निंद्रा में सो सो गया था | हाथियों से टकराता हुवा,तीखी तलवारों से खेल खेलता हुवा,खून से लथपथ होकर भी जब मेवाड़ की स्वतंत्रता को नही बचा सका,तब मौत ने क्षत्रिय जाति को उस दिन उलाहना दिया था-"लोग मुझे क्रूर कहते है,पर ये मेरा दुर्भाग्य है,पर हे क्षत्रिय जाति ! तू मुझसे भी कितनी क्रूर है,जो ऐसे सपूतों से अपनी कोख खली कर मुझे सोंपती रही है ! मुझे निर्दयी कहा जाता है,पर मेरी गोद में जो भी आता है,मै उसे थपथपा कर अनंत निंद्रा में सुला देती हूँ | और दूसरी और तू है,जो उदारता की जननी कहलाती है,पर तेरी गोद में जो आता है,उसे ही तू आग में झोंक देती है !" पर क्षत्रिय जाति ने म्रत्यु के उलाहने का कोई उत्तर नही दिया | उसे उत्तर देने का अवकाश ही नही | उसका अस्तित्व ही उसका उत्तर है | तब मौत ने उदास होकर होनहार से प्राथना की थी,"मत भूलना होनहार ! स्वतंत्रता के अमर पुजारियों में इस छोटे बालक का नाम लिखना न भूलना !"
मौत कहती गई,जाति की कोख खाली होती गई.होनहार की कलम चलती गई,तीनों में होड़ चल रही थी | कोई नही थका,कोई नही थका | थका केवल इतिहास,जो उपेक्षा की गोद में पड़ा हुवा अपनी ही छाती के घावों पर कराह रहा है | हाँ,इसी जगह,जहाँ इतिहास कराह रहा है,किसी दिन मृत्यु और कर्तव्य का पाणीग्रहण हुवा था | यज्ञ कुण्ड में होनहार की अन्तिम आहुति अग्नि के साथ अभी तक फड़क रही है | हथलेवा की मेहँदी अपमानित हुयी सी विवाह मंडप में बिखरी पड़ी हुयी है | चलो आगे बढो |


कुम्भा के महलों के भग्नावशेष और यह पास में खड़ा हुवा विजय स्तम्भ ! एक ही चेहरे की दो आँखे है जिसमे एक में आंसू और दूसरी में मुस्कराहट सो रही है | एक ही भाग्य विधाता की दो कृतियाँ है-एक आकाश चूम रहा है और दूसरा प्रथ्वी पर छितरा गया है | एक ही कवि की दो पंक्तियाँ है,जिसमे एक जन-जन के होठों पर चढ़कर उसकी कीर्ति प्रशस्त कर रही है और दूसरी रसगुण से ओत-प्रोत होकर भी जंगल के फूल की तरह बिना किसी को आकृष्ट किए अपनी ही खुशबु में खोकर विस्मृत हो गई है | एक ही जीवन के दो पहलु-एक स्मृति की अट्टालिका और दूसरी विस्मृति की उपमा बनकर बीते हुए वैभव पर आंसू बहा रही है |
पास ही पन्ना दाई के महलों में ममता सिसकियाँ भर रही है,कर्तव्य हंस रहा है और जमाना ढांढस बंधा रहा है | निर्जनता शान्ति की खोज में भटकती हुयी यही आकर बस गई है | जीवन में भावों की उथल-पुथल चल रही है,यधपि जीवन समाप्त हो गया है | राख अभी तक गर्म है,यधपि आग बहुत पहले ही बुझ चुकी है |मौत का सिर यही कटा था,किंतु जिन्दगी का धड़ छटपटा रहा है |अपने लाडले की बलि चढाकर माताओं ने कर्तव्य पालन किया,मौत का जहर पीकर जिन्होंने जिन्दगी के लिए अमृत उपहार दिया | अपने ही शरीर की खल खिंचवा कर मालिक के लिए जिन्होंने आभूषण बनाये |
ओह ! कैसी परम्पराएँ थी !
यह परम्परा तो जन हथेली पर लेकर चलने की नही,उससे से भी बढ़कर थी | जान को कहती थी - "तुम चलो,हम आती है !"
इज्जत बचाने के लिए प्रलय-दृश्य विकराल अग्नि में कूद पड़ने को यहाँ लोग जौहर कहा करते थे | और यह जौहर स्थान है,जहाँ सतियाँ....|
जमीन में अब भी जैसे ज्वालायें दहक रही है | लपटों में अग्नि स्नान हो रहा है | मिटटी से बने शरीर को मिटटी में मिला दिया | अग्नि की परिक्रमा देकर संसार के बंधन में बंधी और उसी में कूद कर बंधनों से मुक्त हो गई | व्योम की अज्ञात गहराईयों से आई और उसी की अनंत गहराईयों में समा गई |शत्रु आते थे,रूप और सोंदर्य के पिपासु बनकर परन्तु उन्हें मिलती थी-अनंत सोंदर्य से भरी हुयी ढेरियाँ | इस जीवटभरी कहानी पर सिर हिलाकर उसी राख को मस्तक से लगाकर वे भी दो आंसू बहा दिया करते थे | विजय-स्तम्भ ने यह सब द्रश्य देखे होंगे;चलो,उसी से पूछे,उन भूली हुयी दर्दनाक कहानियो का उलझा हुवा इतिहास | देखें उसे क्या कहना है ?
" मै ऊँचा हो-हो होकर दुनिया को देखने का प्रयास कर रहा हूँ,कि सारे संसार में ऐसे कर्तव्य और मौत के परवाने और भी कही है ? पर खेद ! मुझे तो कुछ भी दिखाई नही देता |"
वह पूछता है- " तुमतो दुनिया में बहुत घूम चुके हो,क्या ऐसे दीवाने और भी कही है ?"
"नही !"
तब गर्व से सीना फुलाकर और सिर ऊँचा उठा कर स्वर्ग कि और देखता है | वहां से भी प्रतिध्वनी आती है |
"नही!"
नीवें बोझ से दबी हुयी बताती है,"तेरे गर्भ में ?" तब पाताल लोक भी गूंजता है -
"नही!'
फ़िर भी उसे संतोष नही होता,इसलिए प्रत्येक आगन्तुक से पूछता है,पाषाण-हृदय जो ठहरा ! पर मनुष्य का कोमल हृदय रो देता है और वह हर एक को रुलाये बिना मानता ही नही |

यह गोरा और बादल की गुमटियां है | यहाँ मस्तानों की होली रंग लाया करती थी | यहाँ परवानों की शमां अपना हृदय खा कर जला करती थी | यहाँ दीवानों की जिंदगी दीवानी बना करती थी | यहाँ मतवालों की कहानियाँ श्रोताओं की खोज में स्वयम खो जाया करती थी | मिल कर जीने और मिलकर मरने के अरमान बाहें डालकर चला करते थे | यहाँ सोभाग्य और दुर्भाग्य की आँख मिचौनी में साम्राज्यों के भविष्य डूबते और उतराते थे | यहाँ सुख विधाता की भूल और भोग उस भूल का कोढ़ माना जाता था | यहाँ पराजयों की छाती रोंद कर विजयोत्सव मनाये जाते थे | भाग्य उपेक्षित होकर ठोकरे खाया करता था | यहाँ देश धर्म और कर्तव्य की बलि-वेदी पर शहीदों के मेले लगा करते थे | ऐसे ही मेलों के दो बाँके सपूत "गोरा और बादल" के कुछ मूक भाव अब भी किसी बीते हुए युग की याद में पत्थरों से टकराया करते है,इसलिए पत्थर भी अब बिखरते जा रहे है | चारों और का शांत व गंभीर वातावरण खड़ा-खड़ा भगवान की लीला पर हतप्रभ-सा हो रहा है,- " क्या जमाना और दुनिया इतनी बदल सकती है ?"
कहाँ वे दिन,जब रणभेरी के साथ नगारों पर चोट पड़ते ही जीवन का समुद्र मर्यादाएं तोड़ कर प्रलयंकारी विप्लव खड़ा कर देता था | हृदय की धडकनों से वैभव और विलास के अरमान आत्महत्या कर लेते थे और म्यानों में पड़ी हुयी तलवारें नए इतिहासों का निर्माण करने के लिए खिंच जाने को तडफ उठती थी और कहाँ आज का यह दिन,जब उन्ही के वंशज समय की रणभेरी और कर्तव्य के नगारों की चोट नही सुन पा रहे है | हृदय और मस्तिष्क का प्रकाश बुझ गया | कर्तव्य ज्ञान की आँखे पथरा कर निस्तेज हो गई | विस्मृति के अंधकार में जीवन-सूर्य का नजारा खो गया | आज तो आँखों में आंसू भी नही बचे, जो उनकी याद में बहाए जा सके |

वैरागी चित्तौड़ -3

विस्मृति बता रही है- यह तो रानी पद्मावती का महल है | इतिहास की बालू रेत पर किसी के पदचिन्ह उभरते हुए दिखाई दे रहे है | समय की झीनी खेह के पीछे दूर से कही आत्म-बलिदान का,उत्सर्ग की महान परम्परा का कोई कारवां आ रहा है | उस कारवां के आगे चंडी नाच रही है | तलवारों की खनखनाहट और वीरों की हुंकारे ताल दे रही है | विकराल रोद्र रूप धारण कर भी वह कितनी सुंदर है | कैसी अद्वितीय रणचंडी है | पुरातन सत्य बढ़ा आ रहा है | कितना मंगलमय है | कितना सुंदर है | कितना भव्य है |
हाँ ! यह रानी पद्मावती के महल है-चारों और जल से घिरे हुए पत्थरों ने रो-रो कर आंसुओ के सरोवर में गाथाओ को घेर लिया है |
दुःख दर्द और वेदना पिघल-पिघल कर पानी हो गई थी अब सुख-सुख कर फ़िर पत्थर हो रही है | जल के बिच खड़े हुए यह महल ऐसे लग रहें है,जैसे वियोगी मुमुक्ष बनकर जल समाधी के लिए तत्पर हो रहे रहे हों,अथवा सृष्टि के दर्पण में अपने सोंदर्य के पानी को मिला कर योगाभ्यास कर रहें हों |
यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |
कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |
शत्रु-सेना प्रश्न करती है -
" यह धुआं कैसा उठ रहा है ?"
दुर्ग ने उत्तर दिया -" मूर्खो ! बल के मद से इतरा कर जिस भौतिक वैभव के लिए तुम्हारी कामनाएं है,वाही धूम्र-मय यह संसार है,जो अनित्य है | पीड़ित मिट गए पर सबल से सबल आततायी भी शेष रह पायें है ? जिनके सुख,स्वतंत्रता और स्वाधीनता के साथ आज तुम खिलवाड़ करना चाहते हो,अमरलोक में इन्ही के खेल तुम्हारी बर्बरता पर व्यंग्य से मुस्करायेंगे |"
इतने में ही केसरिया बाना पहने,दुर्ग से ढलते वीरों को भ्रमपूर्ण द्रष्टि देखकर शत्रु सेना फ़िर दुर्ग से पूछती है,- " और यह अंगारे कैसे है ?"
दुर्ग उत्तर देता है- 'मूर्खो ! यह कर्तव्य की आग है,जो नित्य जला करती है,और इसी में जला करती है जुल्मों की कहानियाँ; इसी में आततायियों के इतिहास जला करते है और इसी में जलते है - स्वातन्त्र्य प्रेमी प्रणवीरों के प्राण !"
घमासान युद्ध ! लाशों के ढेर ! खून के कल-कल करते हुए नाले !धरती की लाज छिपाने के लिए क्षत्रियों ने उस पर मानव-वस्त्र डाल दिया | उनकी पराजय शत्रु-सेना की विजय पर व्यंग्य से मुस्कराने लगी | वर्षों का वैमनस्य का निर्णय दो ही घंटों में हो गया |
शत्रु दुर्ग में घुसे | निर्जनता उनके स्वागत के लिए खड़ी थी,क्योंकि वह जीवित और शेष थी | सोंदर्य जलकर राख हो चुका था | राज्य सत्ता आहत हुयी कराह रही थी; अपनी अन्तिम घड़ी की प्रतीक्षा में अधीर हो रही थी |
अल्लाउदीन का प्रस्तर हृदय भी रो उठा | राख को अपने मस्तक के लगाया | दुर्ग को पूछा-"यह भीषण नर-संहार,यह विकराल रक्त-पात और यह यज्ञानल में सर्वस्व-अर्पण केवल तेरी रक्षा के लिए हुआ और तू पाषण-हृदयी,कितना जड़ और ढीठ है,जो मूक खड़ा है किंतु पिघल नही जाता !"
दुर्ग ने शांत भाव से उत्तर दिया-" मेरी रक्षा ही इनका लक्ष्य होता तो ये मुझे अरक्षित छोड़कर अभी न मरते,न जलते | इनकी एक आन है,एक स्वाभिमानी परम्परा है और उसकी रक्षा मर मिटकर ही की जा सकती है | मै तुम्हारे अधीन हो गया,पर वे लक्ष्य-भ्रष्ट नही हुए | अलाउद्दीन ! तुम इन भावनाओं को नही समझ सकते,इन्हें मै जानता हूँ क्योंकि,मेरी छाती पर सदैव ऐसे ही खेल खेले गए है | मै इन अद्वितीय खिलाड़ियों के अचिन्त्य खेलों का सदैव साक्षी रहा रहा हूँ,तुमसे पहले और तुम्हारे बाद कई मुझ पर चढ़ कर आए है और आयेंगे,पर जब तक मरने की यह परम्परा चलती रहेगी,तब तक मै अधीन होकर भी गौरव को स्वाधीनता का पाठ पढाते हुए इनकी अनोखी कहानियाँ सुनाता रहूँगा |इसलिय,मै व्यथा और शोक में पिघलता नही,बल्कि यहाँ के वातावरण और प्रत्येक निवासी को यही शिक्षा देता हूँ कि क्षुद्र देहाध्यास से ऊपर उठकर कर्तव्य को पहचानों |"
अलाउद्दीन ने अपनी फौज को कूच करने का हुक्म देते हुए कहा,-" यहाँ के तो पत्थर भी मनुष्य है और मनुष्य पत्थर है; यह दुर्ग वैरागी है,वियोगी नही |"
"वीतराग वैरागी चित्तोड़ ! तेरे पावन चरणों में मेरा तुच्छ शीश अनुराग से नत है | श्रधा से शत-शत नमन ! तेरा उन्नत मस्तक आज तक किसी के समक्ष नही झुका और इसलिए तुमने हमारा मस्तक सदा के लिए ऊँचा कर दिया | आज वही न झुकने वाला मै,तेरे ही सामने कृतज्ञता से नत मस्तक हूँ; प्रणाम ! शत-शत प्रणाम ! क्या हमें भी कोई शिक्षा दे सकते हो ? तुम पत्थर होकर भी जाग रहे हो और हम इन्सान होकर भी सो रहे है |"
तुम्हें क्या शिक्षा दी जावे, पथिक ! तुम्हारे पूर्वजों के खून ने तुम्हे कोई शिक्षा ही नही दी,तुम्हारी माताओ और बहिनों के बलिदान तुम्हें कुछ नही सिखाया,तुम्हारे जाज्वल्यमान इतिहास से भी तुम कुछ नही सीख सके तो मै क्या शिक्षा दे सकता हूँ, जो उस जीवित इतिहास का एक जड़ और मूक स्मारक हूँ ; पर हाँ मेरी भी मर्यादाएं है | जिनका मस्तक झुक गया,उन्हें जाकर कहना -मेरे सामने आकर अपना मस्तक न झुकाए | जिन्होंने एक जीवित जाति और जीवित इतिहास का स्मारक बना दिया है,उन्हें कह देना-कि मै उन्हें देखना भी नही चाहता | वे कदम कभी इधर न आए,जो हार कर शत्रु के टुकडों पर जीवित रहने के लिए चल पड़े हों |"
वैरागी चित्तोड़ ! विदा ! मै उस समाज के जीवित अंश की खोज में जा रहा हूँ, जो कर्तव्य के मार्ग में परिणामो की चिंता नही करता |उस संजीवनी की खोज में जा रहा हूँ,जिसका आस्वादन कर यह समाज समय-समय पर इतिहास बन सका है | वह त्याग कहाँ है,जिसकी पावन चेतन धारा आज जड़ और मूक बन गई है | वह आकाश कौनसा है,जिसमे मेरे बलिदान का प्रखर सूर्य अस्त हो गया है | मै ढूंढ़ निकालूँगा उन्हें | तेरी प्रेरणा का मुझ पर नशा छा गया है,जिसे जीवन का नशा कहा जाता है,इसी नशे में एक दिन धुत होकर आवूंगा और तुझे बताऊंगा,कि मेरे पूर्वजों के खून ने मुझे क्या शिक्षा दी थी | सिद्ध कर दूंगा,कि मेरे जाज्वल्यमान इतिहास में अब भी शोले दहक रहे है और यह भी सिद्ध कर दूंगा , कि तुम मेरे इतिहास के जड़ और मूक स्मारक नही, एक प्रेरणा के पुंजीभूत हो |
स्व.श्री तन सिंह जी,बाड़मेर


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